चलायमान, चंचल मन कि कल्पना अक्सर बेबस कर जाती रही, मैं भी उसे नज़रअंदाज ना कर पाया, मेरी छोटी ऊँगली मैं अपनी ऊँगली पिरोए वो और मैं गीली रेत पर नदी के किनारे चल पड़े...अचानक मैंने मुडके देखा तो....तो शब्दों के ये पदचिन्ह अपने रूप पर इठ्ला रहे थे........
3 comments:
गिरते हैं शहसवार ही मैदाने-जंग में
वो तिफ़्ल क्या चलेंगे जो घुटनों के बल चले
वाह वाह..........!!!!!!!
आपका स्वागत है.
गुलमोहर का फूल
खूब कहीं
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