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Wednesday, October 3, 2007

व्यथा...

काँटों मैं व्यथित ह्रदय की वेदना, सूखे आंसुओं और दग्ध कंठ की संवेदना,
टूटती सांसों के मध्य जीवन की अभिलाषा,भरसक प्रयासों पर भी वही झूठी दिलासा !

आहट किसी प्रपंच की षड्यंत्र की, पर दोषी पुनः मैं कमी मेरे कर्म की,
अब थक चला हे नाथ मैं इस भार से, ये ठोकरे हर बार की इस हर से !

कुछ अंश हिम्मत का मुझे दे जा प्रभु, हर ले मेरे सब दोष अवगुण हे प्रभु,
घनघोर संकट मैं हूँ ठिठका खडा, संसार की नजरों मैं हूँ दुर्बल बड़ा !

आजाओ पकड़लो डूबते का हाथ तुम, देदो जरा सा आज मेरा साथ तुम,
माना कि मैंने ना ही तेरा तप किया, संकट मैं ही केवल तेरा सुमिरन किया,
पर आज भी जो सके नाथ तुम, बुझ जायेगा "लवलेश" का जलता दिया !